विधवा का जीवन बहुत
पथरीला होता है।
हां ढेरो पत्थर होते है,
उसकी राहो में,
न कोई साथ देता है।
न कोई साथी होता है।।
दुनिया की हर चीज
जैसे रुसवा हो उनसे
हर बात पर पाबंदी लग जाती है
क्यों?
क्यों उसकी बेबसी नजर नहीं आती।
बच्चो की जिम्मेदारी वो उठाती है,
न पढ़ी लिखी वो जैसे तैसे,
मजदूरी करके विधवा बच्चो को
पालती है।
उसके लिए न हंसना न मुस्कुराना
बस फर्ज रह जाता है ।
कब वो विधवा फर्ज,
निभाते निभाते बूढ़ी हो जाती है।
समय ऐसा आता है की,
आस थी जिन बच्चों के सहारे की,
आखिर बूढ़ी अवस्था में भी वो,
बच्चे उस मां को ठोकर लगाते है ।
क्या करे अब वो बेचारी विधवा,
वो बेचारी समाज ने ही बनाई होती है
उनके असुलो से, न उसके हिस्से,
की छोटी छोटी खुशियां उसकी हुई।
न उसकी कुरबानिया करके,
पाल पोस के बड़े हुए बच्चे।
हो सके तो एक काम करना,
कभी किसी विधवा को बदनाम ना करना,
उसकी मदद करना,
उस पर पाबंदियां न लगाकर,
जीने की राह दिखाना,
उससे निराशावादी नहीं,
आशावादी बनाना,
आशावादी बनाना।।
अलका कुमारी
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